Swami vivekaanad karmyog message - स्वामी विवेकानद कर्मयोग मेसेज


Swami vivekaanad karmyog message  - स्वामी विवेकानद  कर्मयोग मेसेज 


कर्म का चरित्र पर प्रभाव 

          कर्म शब्द "कु" धातु से निकला हे; "कु" धातु का अर्थ हे करना. जो कुछ किया जाता हे, वही कर्म हे. इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ "कर्मफल" भी होता हे. दार्शनिक द्रष्टि सर यदि देखा जाय, तो इसका अर्थ कभी कभी वे फल होते हे.जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म होते हे. परन्तु कर्मयोग में "कर्म" शब्द का हमारा मतलब केवल " कार्य" ही हे. मानवजाति का चरम लक्ष ज्ञानलाभ  हे. पार्च दर्शनशास्त्र हमारे सन्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता हे. मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं परन्तु ज्ञान हे, क्योकि सुख और आनद का तो एक न एक दिन अन्त हो ही जाता हे. अंतः यह मान लेना की सुख ही परम लक्ष्य हे, मनुष्य की भारी भूल हे.संसार में सर्व दुखो का मूल यही हे की मनुष्य अज्ञानवश यह समाज बेठता हे की सुख ही उसका चरम लक्ष्य हे. पर कुछ समय के बाद उसको बोध होता हे की जिसकी और वो जा रहा हे, वह सुख नहु वरन ज्ञान हे, तथा सुख और दुःख दोनों ही महान शिक्षक हे. और जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती हे, उतनी ही दुःख से भी. सुख और दुःख ज्यो जॉय आत्मा से पर होकर जाते रहेते हे. त्यों त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हे. और इन चित्रों अथवा संस्कारों की समष्टि के फल को ही हम मानव का "चरित्र" कहेते हे. यदि तुम किसी मनुष्य का चरित्र देखो तो प्रतीत होगा की वास्तव में वह उसकी मानसिक प्रवृतियों अवं मानसिक जुकाव की समष्टि ही हे. तुम यह भी देखोगे की उसके चरित्रगठन में सुख और दुःख दोनों ही समान रूप से उपादान स्वरूप हे. चरित्र को एक विशिष्ठ ढांचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहेता हे. और कभी कभी तो दुःख सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता हे.यदि हम संसार के महापुरुषों का अध्यन करे, तो में यह कह सकता हु की अधिकाँश दशाओ में हम यही देखेंगे की सुख की अपेक्षा दुःख ने तथा सम्पति की अपेक्षा दारिद्य ने ही उन्हें अधिक सिक्षा दी हे अवं प्रशंसा की अपेक्षा निन्दारुपी आघात ने ही उसकी अन्त:स्थ ज्ञानाग्नि को अधिक प्रस्फुरित किया हे. 


     अब, यह ज्ञान मनुष्य में अन्तनिर्हित हे. कोई भी ज्ञान बहार से नहीं आता, सब अन्दर ही हे. हम जो कहेते हे की मनुष्य "जानता" हे उसे ठीक ठीक मनोवैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करने पर हमें कहना चाहिए की वह `अविष्कार करता ` हे. मनुष्य जो कुछ `सीखता` हे.वह वास्तव में `अविष्कार करना` हे `आविष्कार` का अर्थ हे - मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा से ऊपर से आवरण को हटा लेना. हम कहेते हे की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया. तो क्या वह आविष्कार कही कोने में बेठा न्यूटन की प्रतीक्षा कर रहा था? नहीं, वह उसके मन में ही था. जब समय आया तो उसने उसे ढूढ़  निकाला. संसार ने जो कुछ ज्ञान लाभ किया हे, वह मन से ही निकला हे. विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में विध्यमान  हे. ब्राह्य जगत तो तुम्हे अपने मन को अध्ययन में लगाने के लिए उदिपक तथा सहायक मात्र हे, परन्तु प्रत्येक समय तुम्हारे अध्ययन का विषय तुम्हारा मन ही हे. सेव का गिरना न्यूटन के लिए उदिपक करान्स्व्रूप हुआ और उसने अपने मन का अध्ययन किया. उसने अपने मन में पूर्व से स्थित भाव-शुख्ला की कड़ीयो को एक बार फिर से व्यवस्थित किया तथा उनमे एक नयी कड़ी का आविष्कार किया. उसी को हम गुरुत्वाकर्षण नियम  कहेते हे. यह न तो सेब में था और न पृथ्वी के केन्द्र में स्थित किसी एनी वास्तु में ही. अत एव समस्त, ज्ञान चाहे वह व्यवहारिक हो अथवा पारमार्थिक, मनुष्य के मन में ही निहित हे. बहुधा  यह प्रकाशित न होकर ढाका रहेता हे. और जब आवरण धीरे धीरे हटता जाता हे.तो हम कहेते हे की `हमें ज्ञान हो रहा हे`. ज्यो ज्यो इस आविष्कार की क्रिया बढती जाती हे, त्यों त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती हे. जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा हे, वह अन्य व्यक्तियों   की अपेक्षा अधिक ज्ञानी हे. और जिस मनुष्य पर यह आवरण तह पर तह पड़ा हे. वह अज्ञानी हे. जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिलकुल चला जाता हे, वह सर्वज्ञ पुरुष  कहेलाता हे. अतीत में कितने ही सर्वज्ञं पुरुष हो चुके हे और मेरा विश्वास हे की अब भी बहुत से होगे तथा आगामी युगों में भी एशे अशंख्य पुरुष जन्म लेंगे. जिस प्रकार एक चकमक पत्थर में  अग्नि निहित रहेती हे. उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान रहेता हे. उदिपक कारण घर्षणस्वरूप ही उस ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता हे. ठीक एषा ही हमारे समस्त भावो और कार्यो के संबंध में भी हे. यदि हम शांत होकर स्वं का अभ्यास करे , तो यह प्रतीत होता हे की हमारा हँसना -रोना , सुख-दुःख , हर्ष- विषाद  हमारी शुभ कामनाए अवं शाप , स्तुति और निन्दा यह सब हमारे मन के उपाए बहिजगत के अनेक घात-प्रतिघात के फलस्वरूप उत्प्पन हुए हे, और हमारा वर्तमान चरित्र इसी का फल हे. यह सब घात-प्रतिघात मिलकर `कर्म` कहलाते हे. आत्मा की आभ्यन्तरिक अग्नि तथा उसकी अपनी शक्ति अवं ज्ञान को बहार प्रकट करने के लिए जो मानसिक और भोतिक घात उस पर पहोचाए जाते हे , वेही कर्म हे. यहाँ कर्म शब्द का उपयोग व्यापक रूप में लिया गया हे. इस प्रकार, हम सब प्रतिक्षण ही कर्म करते रहेते हे.  में तुमसे बातचीत कर रहा हु - यह कर्म हे , तुम सुन रहे हो यह भी कर्म हे. हमारा सास लेना , चलना आदि भी कर्म हे , वह शारीरक हो अथवा मानसिक सब कर्म ही हे. और हमारे ऊपर वह अपना चिन्ह अंकित कर जाता हे. 


              कई कार्य एशे भी होते हे , जो मनो अनेक छोटे छोटे कर्मो की समष्टि हे. उदाहरणार्थ , यदि हम समुन्द्र किनारे खड़े हो और लहेरो को किनारे के साथ टकराते हुए सुने, तो एषा मालुम होता हे की एक बड़ी आवाज़ हो रही हे. परन्तु हम जानते हे की एक बड़ी लहर असंख्य छोटी छोटी लहरों से बनी हे. और यधपि प्रत्येक छोटी लहर अपना शब्द करती हे. परन्तु फिर भी वह हमें सुन नहीं पड़ता. पर जेसे ही यह सब शब्द आपस में मिलकर एक हो जाते हे. तब हमें बड़ी आवाज़ सुनाई देती हे . इस प्रकार ह्रदय की प्रय्तेक धड़कन से कार्य हो रहा हे. कई कार्य एशे होते हे जिसका हम अनुभव करते हे . वे हमारे इन्द्रियग्राह्य हो जाते हे. पर साथ ही वे अनेक छोटे छोटे कार्यो की समष्टिस्वरूप हे. यदि तुम सचमुच किसी मनुष्य के चरित्र को जाचना चाहते हो , तो उसके बड़े कार्यो पर से उसकी जाच मत करो एक मुर्ख भी किसी विशेष अवसर पर बहादुर बन जाता हे . मनुष्य के अत्यन्त साधारण कार्यो की जाच करो और असल में वे ही एशि बाते हे, जिनसे तुम्हे एक महान पुरुष के चरित्र का पता लग सकता हे. आकस्मिक अवसर तो छोटे से छोटे मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार का बडप्पन दे देते हे. परन्तु वास्तव में बड़ा तो वाही हे , जिसका चरित्र सदेव और सब अवस्थाओ में महान रहता हे.

             मनुष्य का जिन सब व्यक्तियों के साथ संबंध  आता हे. उनमे से कर्मो की वह शक्ति सब से प्रबल हे. जो मनुष्य के चरित्रगठन पर प्रभाव डालती हे. म्नुःय तो एक प्रकार का केन्द्र हे. और वह संसार की समस्त शक्तिओ को अपनी और खीच रहा हे.तथा इस केन्द्र में उन साड़ी शक्तिओ को आपस में मिलकर उन्हें फिर एक बड़ी तरंग के रूप में बहार भेज रहा हे. उः केन्द्र ही ` प्रकृत मानव ` (आत्मा) हे. यह सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ हे. और समस्त विश्व को अपनी और खीच रहा हे. भला-बुरा , सुख-दुःख, उसकी और दोड़े जा रहे हे . और जाकर उसके चारो और मानो लिपटे जा रहे हे. और वह उन सब में से चरित्र रूपी महाशक्ति का गठन करके उसे बाहर भेज रहा हे. जिस प्रकार किसी चीज को अपनी और खीच लेने की उसमे शक्ति हे. उसी प्रकार उसमे बहार भेजने की भी हे. 

                 संसार में हम जो सब कार्य कलाप करते हे. मानव समाज में जो गति हो रही हे. हमारे चारो और जो कुछ हो रहा हे. वह सारा का सारा मन का ही खेल हे. मनुष्य की इच्छाशक्ति का प्रकाश मात्र हे.  अनेक प्रकार के यन्त्र, नगर, जहाज ,युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्चाशाती के विकास मात्र हे. मनुष्य की इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती हे और वह चरित्र कर्मो से गठित होता हे. अत अव , कर्म जेसा होगा इच्छाशक्ति का विकास भी वेसा ही होगा. संसार में प्रबल इच्छाशक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हे, वे सभी धुरंधर कर्मी थे. उनकी इच्छाशक्ति एशि जबरजस्त थी की वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे. और यह शक्ति उन्हें युग-युगान्तर तक निरंतर कर्म करते रहेने से प्राप्त हुई थी. बुद्ध अवं इसा मसीहा में जेसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती. और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योकि हमें ज्ञात हे की उनके पिता कोण थे. हम नहीं कह सकते की उनके पिता मुह से मनुष्यजाती की भलाई के लिए , शायद कभी एक शब्द भी निकला हो . जोसेफ (इसा मसीहा के पिता ) के  सामान तो असंख्य बढ़इ हो गए और आज भी हे. बुद्ध के पिता के सदश लाखो छोटे-छोटे राजा हो चुके हे. अंतः यदि वह वाट केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के ही कारण हुई हो , तो उसका स्पस्टीकरण केसे कर सकते हो की इस छोटे से रजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वं के नोकर भी नहीं करते थे. एषा एक सुन्दर पुत्र रत्न लाभ  हुआ. जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता हे. ? इस प्रकार जोसेफ नमक बढ़इ तथा संसार में  लाखो लोगो द्वारा इश्वर के सामान पूजजाने वाले उसके पुत्र इसा मसीह के बिच जो अंतर हे, उसका स्पष्टीकरण कहा? आनुवंशिक सिद्धांत  के द्वारा तो इसका  स्पस्टीकरण नहीं हो सकता. बुद्ध और इसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहा से ? उस महँ शक्ति का उदभव कहा से हुआ? अवश्य , युग-युगान्तरो से वह उस स्थान में ही रही होगी , और क्रमशः प्रबलतर होते होते अंत में बुद्ध तथा इसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गयी ,  और आज तक चली आ रही हे . 


                 यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता हे. यह सनातन नियम हे की जब तक कोई मनुष्य किसी वास्तु का उपाजन न करे , तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती. संभव हे ,कभी-कभी हम इस बात को न माने, परन्तु आगे चलकर हमें उसका दृढ विशवास हो जाता हे. एक मनुष्य चाहे समस्त जीवनभर धनि होने के लिए एडीचोटी का पसीना एक करता रहे , हजारो मनुष्यों को धोखा दे, परन्तु अंत में वो देखता हे की वह सम्पतिशाली का अधिकारी नहीं था. तब जीवन उसके लिए दुःख:मई और दूभर हो उठता हे. हम अपने भोतिक सुखो के लिए भिन्न-भिन्न चीजो को भले ही इकठ्ठा करते जाए , परन्तु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मो के द्वारा करते हे , वाही हमारा होता हे. एक मुर्ख संसार भर की पुस्तके मोल देकर भले ही अपने पुस्तकालय में रख ले , परन्तु वह केवल उन्ही को पढ़ सकेगा , जिनको पढने का वह अधिकारी होगा. और यह अधिकार कर्म द्वारा ही प्राप्त होता हे. हम किसके अधिकारी हे ? हम अपने भीतर क्या क्या ग्रहण कर सकते हे ? इस सब का निर्णय कर्म द्वारा ही होता हे. अपनी वर्तमान अवस्था के जिम्मेद्दार हम ही हे. और जो कुछ हम होना चाहे ,जिसकी शक्ति भी हमी में हे. यदि हमारी वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व कर्मो का फल हे. तो यह निश्चित हे की जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते हे, वह हमारे वर्तमान कार्यो द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता हे. अतअव हमें जान लेना आवश्यक हे की करम किस प्रकार किये जाए. सम्भव हे, तुम कहो , ` कर्म करने की शैली जान्ने से क्या लाभ? ` संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी प्रकार काम करता ही रहेता हे. परन्तु वह भी ध्यान रखना चाहिए की शक्ति ओ का निरथर्क क्षय भी कोई चीज होती हे. गीता का कथन हे " कर्मयोग का अर्थ हे -- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना. कर्मनुथान की ठीक-ठीक जानने से मनुष्य को श्रेष्ठ फल प्राप्त हो सकता हे. यह स्मरण रखना चाहए की समस्त कर्मो का उद्येश हे मन के भीतर पहेले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना --आत्मा को जागृत कर देना . प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्व शक्ति और पूर्व ज्ञान विध्यमान हे. भिन्न-भिन्न कर्म इन महँ शक्तिओ को जागृत करने तथा बहार प्रकट कर दे में साधन मात्र हे. 
          

स्वामी विवेकानद कर्मयोग -SWAMI VIVEKAANAD KARMYOG 




          मनुष्य नाना प्रकार के हेतु लेकर कार्य करता हे. क्योकि बिना हेतु के कार्य होही नहीं सकता. कुछ लोग यश चाहते हे , और वे यश के लिए काम करते हे. दुसरे पैसा चाहते हे और वे पैसे के लिए काम करते हे. फिर कोई अधिकार प्राप्त करना छटा हे और वे अधिकार के लिए कम करते हे. कुछ और वर्ग पाना चाहते हे , और वे इसी के लिए प्रयत्न करते हे. फिर कुछ लोग अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के इच्छुक होते हे वे इसी के लिए प्रयत्न करते हे. चीन में यह प्रथा हे की मनुष्य की मृत्यु के बाद ही उसे उपाधि दी जाती हे. किसी ने यदि बहोत अच्छा कार्य किया, तो उसके मृत पिता अथवा पितामह को कोई सम्मानीय उपाधि दी जाती हे. कुछ लोग उसी के लिए यत्न करते हे. विचार करके देखने पर यह प्रथा हमारे यहाँ की अपेक्षा अच्छी ही कही जा सकती हे. इस्लाम धर्म के कुछ सम्प्रदायों के अनुयायी इस बात के लिए आजन्म काम करते रहेते हे. की मृत्यु के बाद उनकी एक बड़ी कब्र बने. में कुछ एशे सम्प्रदायों को जानता हु . जिनमे बच्चे के पैदा होते ही उसके लिए एक कब्र बना दी जाती हे. और यही उन लोगो के अनुसार मनुष्य का सब से जरुरी काम होता हे. जिसकी कब्र क\जितनि बड़ी और सुन्दर होती हे. वह उतना ही अधिक सुखी समजा  जाता हे. कुछ लोग प्रायाचित के लिए कर्म किया करते ह. अथार्त अपने जीवन भर अनेक प्रकार के द्रुष्ट कर्म कर चुकने के बाद एक मंदिर बनवा देते हे. अथवा पुरोहितो को कुछ धन दे देते हे. जिससे की वे उनकी लिए मानो स्वर्ग का टिकिट खरीद देंगे. वे सोचते हे की वह इससे रास्ता साफ़ हो गया, अब हम निर्विध्न चले जायेंगे. इस प्रकार, मनुष्य को कार्य में लगानेवाले बहुत से उदेश्य रहेते हे, यह उनमे से कुछ हुए. 

            अब कार्य के लिए ही कार्य - इस सबंध में हम कुछ आलोचना करे. प्रत्येक देश में कुछ एशे नर-रत्न होते हे , जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हे. वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते. वे केवल इसलिए कर्म करते हे की जिससे दुसरो की भलाई होती हे. कुछ लोग एशे भी होते हे जो और भी उच्चतर उदेश्य लेकर गरीबो के प्रति भलाई तथा मनुष्यजाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हे. क्योकि भलाई में उनका विश्वास हे. और उसके प्रति प्रेम हे. देखा जाता हे की नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीध्र फलिफ नहीं होता. यह चीजे तो हमें उस समय प्राप्त होती हे , जब हम वृद्ध हो जाते हे और जिन्दगी की आखरी घडिया गिनते रहेते हे. यदि कोई मनुष्य निःस्वार्थता से कार्य करे तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती ? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती हे. और सच पूछा  जाय तो निःस्वार्थता अधिक फलदायी होती हे. पर लोगो में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता. व्यहारिक द्रष्टि से भी यह अधिक लाभदायक हे. प्रेम,सत्य, तथा निःस्वार्थता नितिसम्बन्धी आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हे. वे तो हमारे सर्वोच्च आदर्श हे. क्योकि वे शक्ति की महान अभिव्यक्ति हे. पहेली बात यह हे की यदि कोई मनुष्य पांच दिन, उतना क्यों, पांच मिनिट भी बिना भविष्य का चिंतन किये , बिना स्वर्ग-नरक या एनी किसी संबंध के बारे में सोचे , निःस्वार्थता से काम कर सके तो वह एक महापुरुष बन सकता हे. यदपि इसे कार्यरूप में परिमत करना कठिन हे. फिर भी अपने ह्रदय से अन्तस्तल से हम इसका महत्त्व समजते हे. और जानते हे. की इससे लिए प्रबल सयम  की आवश्यकता अन्य सब बहिर्मुर्खी कर्मो की अपेक्षा इस आत्मसंयम में शक्ति का अधिक प्रकाश होता हे. एक  चार घोड़ोवाली गाडी उतर पर बड़ी आशानी से घद्घदाती हुई आ सकती हे. अथवा 






















 कर्मयोग 

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