Gita Adhyaay 1 - गीता अध्याय १

    !जय श्री कृष्णा !

                                       

                                               अध्याय १ 


            गीता की विशिष्ठता 


हम एक महान ग्रन्थ की विचारधारा समाज ने की कोशिश कर रहे है इस ग्रन्थ की महानता के बारे मई कोई शक़ नहीं है ,वैश्विक कार्य के लिए भगवान ने ईश ग्रन्थ को गाया है। तत्वज्ञान जैसी उच्च विचारणा इस ग्रन्थ में देखने को मिलती है ,वेसी दूसरी किसी दूसरी जगह देखने को नहीं मिलती पूर्णता की शिखर तक ले जाना वाला ग्रन्थ है श्री कृष्ण भगवान ने अपने प्रिय पार्थ को जो भी कहा वो हम किस तरीके से समझ सकेंगे ?फिर भी एक उपाशक द्वारा। हृद्धय कातर होती हो तो भी एक अतिरिक्त तुलसीदल भावपूर्ण ह्रदय से इस महान ग्रन्थ पर चढ़ाने में कोई आपत्ति नहीं है 


      गीता का महिमा विशेष है . कम  से कम विश्व की ६० से ७० भाषा में गीता का अनुवाद  हुआ है कुछ धर्मग्रंथो का २५० भाषा में अनुवाद हुआ है पर वो कार्य उसके प्रचारको इ प्रचार करने के लिए किया है गीता का अनुवाद गीता को मानने वालो ने उसके प्रचार के लिए या उसका महत्त्व बढ़ाने के लिए नहीं किया है उल्टा ,गीता प्रेमी समाज गीता के प्रचार के लिए उदासीन रहा है ,लेकिन परदेसी लोग ने गीता विचार की सनातनता देख के आत्यंतिक प्रेम से उसका अनुवाद किया है ,,उस लिए गीता के अनुवाद की कीमत है 


आज उनकी उदार उदात्त और प्रसस्त विचारो का प्रभाव है ऐसा अमेरिका मानता है ऐशी उदरमतवादिता आई है उसका कारन "इमर्शन "है इमर्शन जीवन के ४८ साल u.s.a. के konkord शहर में बिताये थे इमर्शन thomas karlail को uk में जब मिले तब karlail ने जीवन के सत्य आदर्श से भरे हुए ग्रन्थ गीताग्रंथ उसको उपहार दिया था ,इतिहास ने इस बात की नोध ली है इमर्शन ने गीता की विचारधारा दृढ़ता से स्वीकार की है गीता की असर इमर्शन पे हुई है और इमर्शन के विचारो की असर u.s.a पर देखने को मिलती है 


     गीता के जीवन के सत्य आदर्श की मोहिनी ज कुछ अलग है हमारे देश में १ गवर्नर जनरल के लिए वोरिंग होस्टिंग आया था उसके ऊपर गीतमे कही हुई विचारधारा की इतनी असर हुई है की उसने चार्ल्स विलिकन्स नाम के उसके सहायक को ५ साल काशी में पढ़ने के लिए भेजा था उसके बाद 1785 में वॉरेन होस्टिंग ने ''मरो या मारो "के बारे में चोटी के सिद्धान्त के तत्वज्ञान कहनेवाली गीता का अनुवाद किया अथार्त गीता के प्रचार के लिए अनुवाद किया होता तो उसकी इतनी कीमत ना  होती अगर प्रचार का उद्देश्य होता तो जगत की सभी भाषा में उसका अनुवाद हो गया होता जीवनमूल्यों को पहचान ने वाले इन्शान अलग और प्रचार करने वाले इन्शान अलग। प्रचारको के कार्य के पीछे एक राजकारण  आ जाता है 


 

Bhagvad Gita - भगवद गीता 




 शुरू में इस साहेबो के नाम स्मरण किया ,वो लोग नामस्मरण करने जैसे है। जिसने इर्मसन या कार्लाइल को पढ़ा होगा उनको पता होगा, यह दोनों नमस्कार करने जैसे है। इन लोगो ने गीता पर प्रेम किया इसलिए गीता अच्छी है ,एषा  मेरा कहना नहीं है "साहेब बोलते है वो सबूत। .ऐश मानना वो एक तरह के बौद्धिक दिवालिया है। पर आज बोलते टाइम आप गीता का वाक्य बोलो उससे अच्छा साहेब का वाक्य बोलो। तो तथाकथित शिक्षित लोग आप को समझदार समजे। यह एक प्रकार की बौद्धिक अवनति है। गीतके जीवन सत्यों यूनिवर्शल है। वो कहने के लिए साहेबो का नामस्मरण किया है। कुछ पंथ। कुछ संप्रदाय और कुछ जाती का तिलक करने वालो के लिए गीता है ऐश नहीं है। गीता का केवल भारत में रहने वाले भक्तो और राष्ट्वादी प्रचारको अनुवाद करते तो उसमे बहुत बड़ी बात थी। पर ,यह अनुवाद राजकारणरहित ज्ञान और शांति के पिपासु ऐशे परदेसी पंडितो ने किया है। इसलिए उनका उल्लेख हो रहा है। 

   देशविदेश के राजनीतिज्ञ ,तत्वज्ञ ,आत्मज्ञ ,आत्मानुभूतिवाले ,कर्मरत ज्ञानी और भावभक्ति से भरे हुए इन्शानो ने गीताग्रंथ में जितना तैरना हो इतना तैर सको एषा ,संक्षेप में कहे तो सब कक्षाके लोगो को मान्य हो ऐसा यह ग्रन्थ है। गीताग्रंथ विश्व के सर्जनहार ,अवतार ऐशे भगवान् गोपालकृष्ण ने गाया है। इसलिए समस्त मानवजाति के लिए यह ग्रन्थ बोलने में आया है। गीता ग्रन्थ इतना महान होने के बावजूद उसकी भाषा सीधी ,सरल ,रोचक ,रसदार और प्रासादिक है। गीता को कोई भी अध्याय गायो तो गाते गाते उसकी प्राशादिकता अनुभववा मिलेगी शुरुआत में पहले अध्याय में कौरव और पांडव पक्ष के अग्रणी योध्या ने युद्ध की शुरुआत में शंख फूंके ,उसका वर्णन है फिर भी वो श्लोको गाते समय वाणी की प्राशादिकता अनुभव करने को मिलती है।  इस अध्याय में गीता की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि ध्यान में आती है उस समय के राजनीती और अलग अलग लोगो का मानसदर्शन यहाँ पर होता है 

 


        गीता के तत्वो पकड़ने और जीवनप्रेरक है इसमें कोई संदेह नहीं है। साथ साथ गीता की परिस्थिति स्फूर्तिदायक है। गीता का पहला अध्याय परिस्थिति साकार करता है विहवल्ता में से गीता जन्मी है शोक -व्याकुल और शोकविह्वल हो गया अर्जुन और स्नेह्व्याकुल और स्नेहविह्वल हुए श्रीकृष्ण   

का यह संवाद है। इसलिए विभिन्न प्रकार के दुखो से विह्वल बनेले इन्शान को यह संवाद जीवन व्यहवार में बहोत लाभदायी है। 


आसान बही धारा

यह ततज्ञान गाया हुआ होने से इसको "गीता" कहते है। इसमें धर्म, भक्ति और जीवन के सिद्धान्त गए हुए है। इस धर्मो और सिधान्तो को किसने गाया ?षड्गुणायश्रययुक्त भगवान् ने गाया हे। इसलिए श्रीमद भगवद्गीता उसका नाम पड़ा हे। 


   भगवान ने गीता का गान किसीको समजाने के लिए किया हे की ?भगवान् को उनकी विद्या का प्रदशन करना था की ? या फिर भगवान् ने स्वमत का मंडन की परमत का खंडन करना था की ?भगवान् को किसी को मानाने का था की ? किसी को मनाने का प्रश्न आया की वहां बेबसी आयी ज समजो। फिर चाहे बाप बेटे को मनाता हो या पति पत्नी को मनाता हो। वैश्विक मानवजीवन का आधार शिलारूप गीताग्रंथ हो ,तो उसमे किसी को मनाने की बात नहीं हो सकती। गीता में स्वमतखंडन ,परमतखंडन पांडित्य प्रदशॅन जैसी कोई और बात नहीं कही  तो? अहा ज्यादा प्रेम लिए जगदम्बा के स्तन में से दूध पिलाने के लिए रसकर बहेने लगा हे। उसके पीछे कोई उधेश्य ,की प्रयोजन था की नहीं उसकी मुझे जरूर शंका हे। स्तनदायिनी माता के पास से दूध खीच ने की जरुरत भी पड़ी नहीं। ऐसा जो स्तन मिला वो गीता हे और इसमें गीता का महत्व हे। 


 


    गीता रणमेदान में गायी है। फिर भी कुछ विनोदी  तात्विक दार्शनिक लोगो ने उसको लग्नप्रसंग बोला है। गीता में अन्तमे जिव और भगवन का लग्न ही होता है। गीता प्रेमपत्र हे 

"पार्थ का 'विषाद 'नाम का लड़का और परमात्मा की 'वाणी 'नाम की कन्या वो दोनों विवाहित और उसके फल स्वरुप जो निर्माण हुआ वो गीता। गीता लोकपावनी हे 


कुरुक्षेत्र क्या है ?

       गीता कहा गाने में आयी है ? कुरुक्षेत्र में  गीता गाने में आयी हे। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ,,,....... से गीता की शुरूआत हे। कुरु राजा  ने जो जमीन खेड़ी वो जमीन हमारे देश में कुरुक्षेत्र हुआ। उसी जगह परशुराम ने एकवीस बार सत्ता और वित्त से उदाम बनेले क्षत्रियो को कंठस्नान देकर उस जगा को पवित्र की ,और उनकी उदमता निकल दी। इसलिए भारतीय लोगो की दृष्टि से कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र हे। कुरु राजाने दिलके प्रेमसे वो क्षेत्र खड़ा किया हे कुरुक्षेत्र का यह महत्व हे



में क्रुरुक्षेत्र में जाऊँगा  .; एषा जो कोई बार बार बोले तो वो सब पापो से मुक्त हो जाता हे .कुरुक्षेत्र का धर्मक्षेत्र इतना महत्व हे .वो पवित्र और पावक तीर्थ हे .

  हमारा शरीर भी एक कुरुक्षेत्र हे. हम उठे थी "कुरु " शुरू होता हे .आँख बंध करते तब तक "कुरु" ही चलता हे - "प्राप्येमाम कर्मभूमि न चरति मनुजो यस्तपोमंदभाग्य :" -     यह कर्मभूमि प्राप्त होने के बाद भगवान् को ललचाये एषा प्रभावी और तेजस्वी कर्म ना  करे . सिंह जेसी गर्जना ना 

करे और गरुड़ जेसी छलांग ना मारे तो मानवजीवन व्यर्थ हे .अरे ! मानव छलांग लगाए .और गिर जाये और पैर टूट जाए तो टूट जाने दो . इसमें क्या हुआ ? पर व्यह्वारी मानव बहोत पक्के होते हे .वो लोग क्रुरुक्षेत्र में आते नहीं .वो जीते हे सही .पर कुरुक्षेत्र में नहीं आते . कुरु  मतलब कर , सुबह में उठते आँख खुली के कुरु   की शुरुआत होती हे . "पर हम तो कुछ नहीं करते "  एषा कोई कुछ नहीं करता . एषा कोई कहेगे . पर "कुछ नहीं करना " वो भी एक करना हे .जेसे अपक्ष का भी एक पक्ष होता हे . इसके जेसा यह  हे .कुरुक्षेत्र  जब अकुरु  होता हे तब वो क्षुद बनता हे ..क्रुरुक्षेत्र में जब तक उधामता (हेकड़ी) हे तब तक वो प्रवित्र क्षेत्र कहेलाता नहीं. हमारा क्रुरुक्षेत्र (शरीर) धर्मक्षेत्र कब होता हे ? वो प्रवित्र कब हो ?जब उसमे से उधामता निकाल दे तब. इसलिए क्रुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र हुआ. परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को नक्षत्रिय करके उधामता निकल दी थी .इसलिए क्रुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र हुआ .यह शरीर क्रुरुक्षेत्र हे और साथ में धर्मक्षेत्र भी हे ,गीता उधामता निकालने वाली हे . " में गीता भी पढू और उधाम भी रहू " इ दोनों बाते नहीं बन सकती .गीता पढ़ के भी पढनेवाला उधाम रहेता हे .और निस्तेज रहेता हो तो पढने में कुछ भूल हे . कोई कहेगा " हमने बहोत बार गीता पढ़ी हे " उसको कहेना पड़े की "आपने गीता पढ़ी ही नहीं " . अगर दिता पढ़ी हो तो तेजस्विता आनी  ही चाहिए,  गीता कर्मप्रणव बनानेवाली और उन्मतता ,  अहंकार निकलनेवाली हे .


     गीता में पहेला श्रोल्क द्रुतराष्ट  का हे

 

धर्मक्षेत्रे क्रुरुक्षेते समवेता युयुत्सवः 

मामकाः पाण्डवाश्चेव किमकुर्वत संजय    

     यह धर्मक्षेत्र क्रुरुक्षेत्र में धृतराष्ट की चिंता हे . गिताकी शुरुआत चिंता से होती हे . सही बात हे . चिंता होने लगे तब चित भगवान के पास जाने लगे .चिंता होने लगे वो कुछ गलत नहीं हे .वेदव्यास ने पहेले श्रोल्क में धृतराष्ट की चिंता दिखाई हे . धृतराष्ट ओ हमेशा चिंता करनेवाला होता हे . 

धृतराष्ट्र और ह्रुत्रराष्ठ  


        हास्य में कहेना हो तो यहाँ २ पक्ष खड़े हे ,एक धृतराष्ट्र  और दूसरा हृतराष्ट  . धृतराष्ट्र  मतलब धृतं राष्टं येन स:  जिसने राष्ट पकडके रखा हे वो .उलट -फुलट करके , गलत करके , जुआ खेलके .पांडवो का राज्य लेकर खड़ा हे वो . पर सामने वाला पक्ष हृतराष्ट हे  . हृतराष्ट मतलब जिसका राष्ट खिचाई गया हे वो . हमेशा हृतराष्ट का पक्ष लड़ाई में उत्षाहित होता हे . और धृतराष्ट अनुत्शाही होता हे .क्यों की जिसने राष्ट पकड़ के रखा हे .वो पराजित हो .तो उसको गुमाना होता हे और विजयी हो तो भी गुमाना होता हे .हरुत्राष्ठ वालो को जय मिले या पराजय उनको गुमाना(खोना ) कुछ नहीं होता . हम और अग्रेजो लड़ते थे ,तब अग्रेजो धृतराष्ट्र और हम ह्रुत्राष्ठ थे . इसलिए लड़ाई में उन्होंने गवाया , हमने नहीं गवाया . हमारे में .उस समय लड़ाई के लिए उत्शाह था और अग्रेजो को लड़ाई पसंद नहीं थी . विश्व का नियम हे के ह्रुत्रास्त हमेशा लड़ने तैयार ही होते हे . जब धृतराष्ट्र लड़ने के लिए नीरउत्शाही हे .

धृतराष्ट्र किसे कहेते हे ?   


    धृतं राष्ट मतलब भोतिक सम्पति ही सर्वश्रेष्ठ हे. एषा माननेवाला सब धृतराष्ट्र हे. केवल पुराने काल में धृतराष्ट्र हो गया एषा नहीं हे . पैसा ,व्यपार ,उद्योग , धंधा - यह भोतिक सम्पन्ति श्रेष्ठ हे. एषा माननेवाला सब धृतराष्ट्र हे . धृतराष्ट्र हमेशा अंधे होते हे .हजारो सालो का इतिहास एषा ही हे .जिनको केवल राष्ट पकड़ के रखना हे .वो अंधे होते हे . उनकी पत्नी भी अंधी होती हे .
      
       बहोत सालो से तत्वज्ञान चला गया .गीताका स्वाध्याय छुट गया . इसलिए इस संसार में आधे भाग में व्याप्त होकर रहेली महिलाए की जमात अंधी हो गई हे .इसका कारण पुत्र मोह और पति के ताल पर नाचना .इसमें ही स्त्री खुद के जीवन का सार्थक्य समजती हे .जिस दिन से स्त्री एषा एषा समजने लगी उस दिन से स्त्री को आँखे होते हुए भी वो अंधी (दिव्यांग ) हो गयी हे .

        भोतिक सम्पति ही श्रेष्ठ माननेवाले धृतराष्ट्र और गांधारी  के संतान केसे हो ? दू:शाशन दू:शिला ,दुर्योधन ... कौरवो के नाम देखो ज्यादातर नाम के आगे "दुस" हे दू : मतलब दृष्ट -दुखी . सब औलाद दृष्ट और दुखी हुई उसका कारण गांधारी हे .पति को आँखे नहीं हे .तो गांधारी (स्त्री )ने भी आँख पर पट्टी बाँध दी .पति के ताल पर नाचना वो ही खुदका कर्तव्य हे . खुद को एक खिलौना की तरह नाचना चाहिए . एषा उसको बचपन से ही पढाया गया था .पतिरेको गुरु: स्त्रीणाम  पति ही स्त्री का गुरु हे , उसके परिणाम स्वरूप स्त्री पति के ताल के ऊपर नाचती हे . और पति वित्त और भोतिक सम्पति से नाचता हे . और एशे पुत्रमोह से व्याकुल होते हे .ऐशी वृति(स्वभाविक ) रखने वाले सब अंधे ही कहेलाते हे 

       धृतराष्ट्र की चिंता  

     पहेले अध्याय धृतराष्ट्र की चिंता हे .गीताका पहेले अध्याय का पहेला श्रोल्क पढो .उस समय की परिस्थिति समाज ने के लिए .इस श्रोल्क को समजने की आवश्कता हे जितनी गीता जीवनदायी और संजीवनी हे.उतनी उसकी परिस्थिति प्रेरणा स्त्रोत   हे .पहेला अध्याय युद्धभूमि और युद्ध के परिणाम का सटीक जानकारी देता हे .

   धृतराष्ट्र पहेले अध्याय में पूछता हे " कौरवो और पांड्वो क्या कर रहे हे ? सही में यह पूछने का अर्थ क्या हे ? क्या वो सब इकट्ठे हुए थे वो दावत के लिए या खेलने के लिए इकट्ठे हुए थे ? वर्षो से पडघम बजाते बजाते जंग के मदन में शुर और योद्धा आये थे . इसलिए धृतराष्ट्र को सिर्फ इतना पूछना था की " युद्धस्य आरम्भो जात: न वा - युद्ध की गतिविधी शुरू हुई की नहीं ?पर धृतराष्ट्र एषा नहीं पूछता इसमें वेदव्यास को कुछ समजाना हे . उस समय की परिस्थिति समजेंगे तो पता चलेगा यहाँ धृतराष्ट्र मिश्रित किस लिए पुछ रहा हे . उसके पीछे बहोत बड़ा इतिहास हे आने वाले कल में पीछे का इतिहास काल के पेट में चला जाएगा तो भी धृतराष्ट्र का किमकुर्वत संजय  इस प्रश्न पर से समाज में आ जाये की धृतराष्ट्र को यह युद्ध नहीं चाहिए .क्यों की युद्ध करके खोना था .उसका पक्ष हारे तो भी  खोना था और जीते तो भी खोना था . इसलिए वो चिंता से भरा हे .
 युद्ध से पहेले की संजयविष्टि         

        महाभारत पढो तो पता चलता हे की युद्ध करने से पहेले कौरव पक्ष को मानसिक तरीके से   मारने के लिए श्रीकृष्ण विष्टि करने गए थे . श्रीकृष्ण की विष्टि सबके ध्यान में आती हे . पर संजयविष्टि की सबको पता नहीं हे .क्यों की हम मूल महाभारत नहीं पढ़ते कृष्ण विष्टि करने गए इसके पहेले संजय विष्टि करने गया था . संजय को इस महापुरुष (!) धृतराष्ट्र ) ने भेजा था धृतराष्ट्र का शंदेश उच्च तत्वज्ञान से भरा हुआ था. पर Devil quoting The Bible (शेतान बाइबल सुनाए ) जेसा हे.धृतराष्ट्र ने उस संदेशे में पांडव को समजाया थी की " आपके जेसे महान होने के लिए जन्मे हुए जन को युद्ध सोभायमान नहीं हे. एषा धर्मवचन सुन कर युद्धिस्थिर थोड़े बहोत नरम हुए थे. परन्तु उस समय पांडवो के पीछे  केवर्तक: केशव:- श्रीकृष्ण खड़े थे. उन्होंने संजय्विष्टि सुनी और तुरंत संजय को कहा : आप बहोत उच्च तत्वज्ञान समजाते हो परन्तु में इतना ही कहेता हु जहासे यह उपदेश आया हे वहा से उसकी शुरुआत होनी चाहिए वो ज्यादा इच्छनिय हे .इतना बोलके श्रीकृष्ण किसी की अनुमति ना मागते हुए घोषणा की  "में " विष्टि करने आ रहा हु. कृष्ण किसी के निमे हुए राजदूत नहीं थे. श्रीकृष्ण अशधारण राजदूत हो गए. राजकीय द्रष्टि से महाभारत पढ़े तो पता चलता हे की श्रीकृष्ण ने आधी लड़ाई विष्टि में ही जित ली थी .और बाकी रही आधी लड़ाई पांडव ने रनमैदान में जीती .


          विष्टि में श्रीकृष्ण के तेजस्वी भाषण को सुन के इकठा हुए सब क्षत्रिय के अंतःकरण हिल गए  थे . उनको एषा लग रहा था की वो गलत पक्ष में खड़े हे और गलत पक्ष तो सहयोग दे रहे हे . विष्टि के द्वारा श्रीकृष्ण ने सबका मनोबल खलास करी दिया था. 
       
             " संजयविष्टि का प्रभाव उस समय शायद न हुआ हो , परन्तु मेरे  धर्मवचन पांडवपक्ष धर्मक्षेत्र एषा क्रुरुक्षेत्र में आकर याद करते होगे." एशि धृतराष्ट्र को शंका हे. इसलिए वो संजय को पूछता हे. की " पांडवपक्ष के ऊपर मेरे संदेशे की कोई प्रभाव होती हुई दिख रही हे ? अर्जुन शस्त्र छोडके बेठा हे उसके अनेक कारण हे , उसमे संजयविष्टि भी उसमे एक कारण हे. धृतराष्ट्र वोही जानना चाहता था. इसलिए वो पहेला प्रश्न पूछता हे किमकुर्वत संजय   क्या अर्जुन इतने ही शोर्य से लड़ने खड़ा हे? संजयविष्टि का प्रभाव  अर्जुन के ऊपर  शोर्य , वीर्य , प्रभाव और पौरुष के पर हुई हे की नहीं ? उसको यह जानना था एशे धृतराष्ट्र की चिंता से गीता की शुरुआत होती हे . धृतराष्ट्र की चिंता दिखाने के बाद युद्ध की स्फूर्तिदायक परिस्थिति समजाते हे 

उल्जन में  दुर्योधन   

   द्रोण के पास दुर्योधन आता हे और सेन्य का परिक्षण करता हे , और कहेता हे की पांडवो का सेन्य प्रयाप्त हे और हमारा सेन्य अपर्याप्त हे. 

             युद्ध के मैदान में आने के बाद दुर्योधन की मनःस्थिति केसी हे वो अहा समजाया हे.परीक्षा के होल में परीक्षा देने गए विधार्थी जेसी दुर्योधन की मनःस्थिति हे. परीक्षार्थी यश के लिए जल्दी में हे और  जल्दी से लिख दूंगा
साथ में उसको डर भी हे पेपर  . आशान नहीं हुआ तो ? दुर्योधन की एशि ही स्थिति दिखाती हे. दुर्योधन यश के लिए अधीर हुआ हे. और अन्दर पोते यशस्वी होगा की नहीं इस बारे में शंशय हे . इसलिए खुद के सेन्य के लिए अपर्याप्त और पांडवो के सेन्य के लिए पर्याप्त  - एशे द्रिअर्थी शब्दों का प्रयोग किया हे . पांड्वो का सेन्य पूर्ण हे क्यों की वो दिल से जंग के मैदान में खड़े हुए हे . और हमारा सेन्य अपूर्ण हे क्यों की सब किराए के हे .वो दिखाने वाला कार्य करने वाले हे . इसलिए खुद के पक्ष के लिए दुर्योधन के मन में दर हे . उसके संकेत के रूप में दुर्योधन ने द्रोण को ताना मारा हे उनको द्रिजोतम    बोलके सम्भोधन किया हे. 

               सच में देखा जाये तो युद्ध के मैदान में खड़े हुए द्रोण को द्रिजोतम कहेने का कोई कारण ही नहीं . द्रिज लड़ने वाला नहीं हे .द्रोण पुरे क्षात्र संगठन के गुरु हे. पर उनको दुर्योधन ने द्रिजोतम बोलके सम्भोधन किया हे. इतना ही नहीं तव शिष्येण धीमता  बोलके ' जिसको आपने पढाया वो आपका शिष्य धृतद्रुम आपको मारने के लिए सामने वाले पक्ष में खड़ा हे' एषा भी ताना मारा हे. यह सब दुर्योधन के मन में छुपे हुए डर - भय दिखता हे . दुर्योधन एक तरफ खुद के सेन्य की कमजोरी समज चूका हे , तो सामने वाले पक्ष का सामर्थ्य भी समज चूका हे . पांड्वो सेन्य संख्यात्मक शक्ति कम हे फिर भी पूर्ण हे और खुद का सेन्य अपूर्ण हे . इसलिए यश की आशा कम हे . वो दुर्योधन समजता हे . वो खडकी मनःस्थिति द्रोण को कहेता हे. संक्षेप में कहेना हो तो पांडव सेन्य एक पक्षपाती ( एक ही पक्ष के प्रति वफादारी वाला हे ) और कौरव सेन्य दोनों पक्षपाती हे .उसमे कितनो को जयोस्तु पाण्डवानाम  एषा लग रहा हे. साथ साथ कौरव सेन्य में काफी को यश - अपयश की परवा नहीं हे . कुछ महान धनुर्धारी मानते रहे हे की . खुद कौरव पक्ष में हे सही . पर कृष्ण का विष्टि के समय दिए हुए भाषण सुन के खुद की भूल हुई हे एषा उनको लगता हे . वो करार से बंधे हुए हे. इसलिए अब कौरव पक्ष में ही रहेना चाहिए . पर पांड्वो का जय हो जाये तो बहोत अच्छा . जयोस्तु पाण्डवानाम   एषा बोलनेवाला वो वर्ग हे. इसलिए दुर्योधन को खुद का सेन्य पूरा लग नहीं रहा  .अपूर्ण लग रहा हे .


टिप्पणियाँ